भारत, जो कृषि प्रधान देश है और जिसकी लगभग 60% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जल संकट का सामना कर रहा है। देश में विश्व की 18% आबादी रहती है, लेकिन उसके पास केवल 4% पीने योग्य जल संसाधन हैं। जल असमानता, सूखा और बाढ़ जैसी समस्याएं लंबे समय से देश को प्रभावित कर रही हैं। इन्हीं चुनौतियों के समाधान के लिए नदी जोड़ो परियोजना का विचार प्रस्तुत किया गया था। यह परिकल्पना पहली बार 1980 के दशक में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (NWDA) द्वारा की गई थी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में इसे बढ़ावा मिला, और आज उनकी जन्मशती के अवसर पर इस विचार को धरातल पर लाने का सार्थक प्रयास किया जा रहा है। इस लेख में केन-बेतवा लिंक परियोजना, नदी जोड़ो परियोजना के महत्व, लाभ, और चुनौतियों पर चर्चा की जाएगी।
नदी जोड़ो परियोजना का उद्देश्य देश की जल असमानता को संतुलित करना और जल संसाधनों का प्रभावी प्रबंधन करना है।इस परियोजना के मुख्य उद्देश्यों में पानी की अधिशेष वाली नदियों से पानी की कमी वाली नदियों को जोड़ना, कृषि सिंचाई, पीने के पानी की आपूर्ति और जलविद्युत उत्पादन में सुधार हैं।
इस परियोजना के 2 मुख्य घटक हैं, पहला हिमालयी नदियों का जोड़ एवं दूसरा प्रायद्वीपीय नदियों का जोड़। इस योजना के तहत 30 लिंक परियोजनाओं और 3000 जलाशयों का निर्माण प्रस्तावित है, जिसकी लागत लगभग 13440 बिलियन आंकी गई है।
केन-बेतवा लिंक परियोजना इस विशाल योजना का पहला चरण है। यह उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की नदियों, केन और बेतवा, को आपस में जोड़ने का प्रयास है। इसमें 221 किमी लंबी नहर का निर्माण किया जाएगा जिससे 6.35 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होगी, 62 लाख लोगों को पेयजल आपूर्ति होगी तथा 103 मेगावाट जलविद्युत और 27 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकेगा । यह परियोजना सूखा प्रभावित बुंदेलखंड क्षेत्र में जल उपलब्धता सुनिश्चित करेगी, जिससे कृषि और स्थानीय रोजगार को बढ़ावा मिलेगा।जलाशयों और नहरों के माध्यम से जल संसाधनों का प्रबंधन किया जाएगा।
पर इस परियोजना से पन्ना टाइगर रिजर्व के लगभग 4000 हेक्टेयर क्षेत्र में जैव विविधता को नुकसान पहुंच सकता है। नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा आने से पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो सकता है।हजारों लोगों को विस्थापन का सामना करना पड़ेगा।एवं लगभग ₹44,605 करोड़ की लागत इसे वित्तीय रूप से चुनौतीपूर्ण बनाती है।शोधकर्ताओं का यह भी मानना है कि हाइड्रो-लिंकिंग परियोजनाएं मानसून के चक्र को प्रभावित कर सकती हैं और जल-मौसम विज्ञान प्रणाली में जटिलता बढ़ा सकती हैं।
बड़ी परियोजनाओं के साथ-साथ जल संरक्षण के छोटे और प्रभावी उपायों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है- जैसे कुशल सिंचाई प्रणाली: ड्रिप और स्प्रिंकलर जैसे तकनीकों का उपयोग।अपशिष्ट जल प्रबंधन: गंदे पानी के पुनर्चक्रण और स्वच्छता पर अनुसंधान।स्थानीय समुदायों की भागीदारी: जल प्रबंधन में स्थानीय लोगों को शामिल करना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी कि “जल सुरक्षा 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है”, इस दिशा में सरकार के दृढ़ संकल्प को दर्शाती है।
दुनिया के कई देशों ने इसी प्रकार की योजनाओं को लागू किया है। उदाहरणार्थ चीन की दक्षिण-उत्तर जल अंतरण परियोजना- जिसका लक्ष्य जल-समृद्ध दक्षिण से जल-कमी वाले उत्तर में पानी पहुंचाना था। हालाँकि इससे पेयजल संकट का समाधान हुआ लेकिन पर्यावरणीय क्षति और भारी लागत का दुष्प्रभाव झेलना पड़ा । अमेरिका की टेनेसी वैली अथॉरिटी- इस परियोजना का लक्ष्य बाढ़ नियंत्रण और जलविद्युत उत्पादन था। इससे क्षेत्रीय विकास तो हुआ लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव भी देखा गया ।
अफ्रीका की ओवांबो नदी लिंक परियोजना- इससे सीमित सफलता ही मिली और तकनीकी समस्याएं भी आईं।
इन अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि नदी जोड़ो परियोजनाओं को सफल बनाने के लिए सतत विकास और पर्यावरण संतुलन आवश्यक हैं।अतः यह कहना उचित होगा कि नदी जोड़ो परियोजना जल संकट से निपटने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है। केन-बेतवा लिंक परियोजना जैसी योजनाएं भारत के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए वरदान साबित हो सकती हैं। हालांकि, इन योजनाओं के लाभों के साथ-साथ पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को समझना भी अनिवार्य है। यदि इन परियोजनाओं को सतत विकास और स्थानीय समुदायों की भागीदारी के साथ क्रियान्वित किया जाए, तो यह न केवल जल संकट का समाधान होगा, बल्कि देश की जलवायु और आर्थिक स्थिरता में भी महत्वपूर्ण योगदान देगा। भारत को अपने जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अधिकतम उपयोग करना होगा ताकि यह महत्वाकांक्षी योजना देश के लिए वास्तव में लाभकारी साबित हो सके।
( राजीव खरे राष्ट्रीय उप संपादक )
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