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कांवड़ यात्रा और नामपट्टिका विवाद: उपभोक्ता अधिकारों की बहस

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सर्वोच्च न्यायालय ने कांवड़ मार्ग पर दुकानों के नामपट्टिका से संबंधित आदेश पर रोक को पांच अगस्त तक बढ़ा दिया है। इस विवाद के तीन मुख्य पहलू हैं: उपभोक्ताओं का जानने का अधिकार, राज्य का कानून-व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व, और यह आदेश कोई नई व्यवस्था नहीं है, बल्कि पूर्व में स्थापित कानूनों के अनुरूप है। यह मुद्दा हिंदू-मुसलमान विवाद का रूप ले चुका है।

विभिन्न समुदायों में धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप भोजन चुनने का अधिकार होता है, जैसे यहूदी समाज में ‘कोशर’ और मुस्लिम समाज में ‘हलाल’। हिंदू समाज में कांवड़ यात्रा के दौरान सात्विक भोजन का पालन महत्वपूर्ण है। विवादित दिशानिर्देश में कहीं भी यह नहीं लिखा था कि गैर-हिंदू अपनी दुकानें नहीं लगा सकते, बस नामपट्टिका लगाने की आवश्यकता थी।

कई गैर-हिंदू अपनी वास्तविक पहचान छिपाकर देवी-देवताओं के नामों पर दुकानें चलाते हैं, जिससे उपभोक्ताओं को धोखा हो सकता है और सांप्रदायिक तनाव पैदा हो सकता है। इस आदेश का उद्देश्य कानून-व्यवस्था और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखना था। उपभोक्ताओं के अधिकारों की रक्षा के लिए पहले से कई कानून मौजूद हैं, जैसे ‘जागो ग्राहक जागो’ अभियान और ‘खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम’।

अदालत ने उपभोक्ताओं के अधिकारों की अनुपालना पर जोर दिया है। सनातन संस्कृति में ‘सात्विक भोजन’ की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है, यह व्यक्तिगत आस्था पर निर्भर करता है। यदि कोई व्यक्ति धार्मिक आस्था के अनुसार भोजन करना चाहता है, तो यह संविधान और सभ्य समाज का दायित्व है कि उसकी पूर्ति की जाए। ‘हलाल’ प्रमाणपत्र की तरह कांवड़ियों के ‘भोजन चुनने के अधिकार’ को भी मान्यता मिलनी चाहिए और इसे सांप्रदायिक विवाद नहीं बनाना चाहिए।

( राजीव खरे – उप राष्ट्रीय संपादक)

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