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धार्मिक पुस्तकें और संविधान: जीवन के दो स्तंभ

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भारतीय समाज में धर्म का गहरा प्रभाव है, जिसके चलते हर घर में धार्मिक किताबें जैसे गीता, कुरान, बाइबिल और रामायण सम्मानित स्थान पर रखी जाती हैं। ये धार्मिक ग्रंथ लोगों को नैतिकता, सत्य, और आध्यात्मिकता का मार्ग दिखाते हैं। लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब इन धार्मिक पुस्तकों को इतना महत्व दिया जाता है, तो संविधान की प्रति क्यों नहीं रखी जाती? संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह हमारे देश की नींव है, जो हमारे मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों का मार्गदर्शन करता है।

संविधान समाज के हर नागरिक को उसके अधिकारों और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूक करता है। जिस प्रकार धार्मिक पुस्तकें आध्यात्मिक दिशा दिखाती हैं, संविधान हमारे सामाजिक और नागरिक जीवन को संचालित करता है। आज के समय में, जब लोग अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति अधिक जागरूक हो रहे हैं, संविधान की प्रति हर घर में होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था को बेहतर समझ सकेंगे और अपने समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को महसूस करेंगे।

संविधान की प्रति घर में रखने से समानता, न्याय और बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहन मिलेगा। जहां धार्मिक किताबें नैतिकता सिखाती हैं, वहीं संविधान यह सुनिश्चित करता है कि हर नागरिक को समान अधिकार मिले और वह बिना किसी भेदभाव के उनका उपभोग कर सके। इससे न केवल सामाजिक संतुलन बनेगा, बल्कि नागरिकों में जिम्मेदारी और अनुशासन की भावना भी विकसित होगी।

इसके अलावा, धार्मिक असहमति और श्रेष्ठताबोध के कारण मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया में धर्म के आधार पर हिंसक संघर्ष होते रहे हैं। धार्मिक संकीर्णता और अहंकार से सहिष्णुता और आपसी समझ कमजोर हो जाती है। ऐसे में संविधान का महत्व और बढ़ जाता है, क्योंकि यह हमें न्याय, समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर आधारित एक लोकतांत्रिक समाज बनाने की प्रेरणा देता है।

अतः हर घर में संविधान की प्रति रखना न केवल प्रतीकात्मक कदम होगा, बल्कि यह समाज में एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन भी ला सकता है। जब हर घर में संविधान होगा, तो हर नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों को बेहतर ढंग से समझेगा, जिससे हमारा राष्ट्र और अधिक मजबूत और समावेशी बन सकेगा।

( राजीव खरे राष्ट्रीय उप संपादक)

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