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आचरंग सूत्र के वाचन के साथ भव्य प्रवचन माला का आयोजन

वीरमणि स्वर्णिम चातुर्मास 2023, तिलक नगर, इंदौर
इंदौर मध्य प्रदेश
मर्यादा, पुण्य अर्जन एवं विश्वास जीवन को संतुलित रखते हैं
मुनिराज श्री तीर्थंकररत्नजी ने पहले आगम आचारंग सूत्र पर प्रवचन दिया। इसके सूत्र एवं अर्थ में गहराई है एवं दिल और मन की सफाई का कार्य करता है। इसमें तीन मुख्य संदेश हैं।
1. संतुलन कायम रहे – किसी भी परिस्थिति में मन एवं मस्तिष्क का संतुलन बना रहना आवश्यक है। जटिल परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखना बहुत कठिन कार्य है। छोटी-छोटी घटनाओं में भी हम अपना आपा खो देते हैं या मन विचलित हो जाता है। मन में क्रोध होने से शांति संभव नहीं है। मंदिर में प्रभु को चावल तो प्रतिदिन चढ़ाते है, कभी अपना क्रोध ही चढ़ा दो। किसी भी स्थिति में संतुलन कैसे बनाए रखना है आगम में वर्णित है।
2. ममता (आसक्ति) छोड़ो – भौतिक वस्तुओं की ममता का त्याग कर देना चाहिये नहीं तो यह लगाव हम को हानिकारक होगा। यदि लगाव नहीं छोड़ तो दुर्गति हो जाएगी ।
3. क्षमता को पहचानो – अपने में मौजूद शक्ति को पहचानकर व्यसन को छोड़ो। हमारे पास अनंत शक्ति उपलब्ध है जिनका उपयोग कल्याण के लिये किया जा सकता है। जब एक जानवर भी क्रोध छोड़ सकता है हम क्यों नहीं छोड़ सकते हैं। संसार में कुछ असंभव नहीं।
मनुष्य की तीन विशेषतायें होती है। (1) प्रतिदिन धर्म करेगा, (2) तिथि के दिन धर्म करेगा और (3) याद-कदा धर्म करेगा।
आचारण के सूत्र कहा गया है कि, जो जीवन में लक्ष्य का निर्धारण करना जानता है वही सच्चा पंडित है। जीवन के तीन लक्ष्य बताए गये हैं।
1. एनी हाउ मर्यादा – किसी भी परिस्थिति में मर्यादा का पालन अवश्य होना चाहिये। जैन धर्म के साधु-साध्वियों की मर्यादा पालन तो संसार में जानी जाती है। श्रावक-श्राविका एवं बच्चों को मंदिर एवं उपाश्रय में सभी प्रकार से मर्यादा का पालन करना आवश्यक है।
2. एनी हाउ पुण्य – हर हाल में पुण्य अर्जन करना आवश्यक है। जैसे शरीर को भोजन चाहिये वैसे ही आत्मा को पुण्य। जो भी परिस्थिति हो पुण्य का अवसर जाने नहीं देना है।
3. एनी हाउ ट्रस्ट – जीवन में विश्वास की डोर टूटना नहीं चाहिये। आत्मा, पुण्य एवं पाप में विश्वास बनाये रखना हैं। परमात्मा की वाणी पर विश्वास रखना चाहिये। मन बुद्धि के सहारे जीने का प्रयास करेगा है और हृदय श्रद्धा के सहारे जियेगा। मन कहेगा मंदिर में प्रतिमा है परंतु हृदय कहेगा मंदिर में भगवान हैं।
मुनिवर का नीति वाक्य
“‘मन के संतुलन से आसक्ति छोड़ो, मर्यादा, पुण्य व विश्वास पकड़ो”

आसक्ति के आंतरिक शत्रु का अंत करके मुक्ति मिल सकती है
मुनिराज श्री ऋषभरत्नविजयजी ने बताया कि, जीव योनियों में भटक रहा है क्योंकि उसके आंतरिक शत्रु समाप्त नहीं हुए हैं। बाहरी शत्रु को तो खत्म करना आसान है परंतु अंदर के दुश्मन को दफन करना कठिन कार्य है। जीव सोचता है संपत्ति और साधन मेरा है वास्तव में मेरा कुछ भी नहीं है क्योंकि सभी वस्तुएं नाशवान है। संपत्ति का सुख क्षणिक है जिसके कारण दुःखों को भूल गये हैं। जड़ की तरह जकड़े हुए संपत्ति, स्वजन एवं शरीर के सुख को छोड़ नहीं पा रहे है और शाश्वत सुखों की तरफ से ध्यान हट गया है। हम लगभग कल्पना में जी रहे हैं जबकि, सपना और कल्पना वास्तविक नहीं होते है। पुरुषार्थ के माध्यम से अशाश्वत जीवन को शाश्वत की ओर ले जाया जा सकता है।
इस लोक में यात्रा सुविधाजनक हो इसकी तैयारी तो हम कर लेते है इसी तरह परलोक की यात्रा को आनंदमयी एवं सुविधाजनक बनाने के लिये सद्कार्य करना आवश्यक है। परमात्मा के वचनों को पकड़ के रखो क्योंकि वही सुख एवं सत्य है। सत्य अपने मूल स्वरूप में रहता है जबकि झूठ रूपी परछाई घटती बढ़ती रहती है। सुख तीन प्रकार के होते है। प्रथम – ऐसा सुख जिसमें दुःख मिश्रित न हो अन्यथा वह किसी काम का नहीं होता है, दूसरा – सुख सदा हमारे पास या साथ में होना चाहिए जब हम चाहे उपयोग कर सकें, तीसरा – सुख स्वाधीन हो – जिसको हम कभी भी प्राप्त कर सकें एवं वह स्थायी हो। परमात्मा की इच्छा है कि धर्म आराधना करके स्थायी सुख प्राप्त करें।
आठ प्रकार की इच्छाएं सभी को होती हैं।
(1) मेरी बुद्धि तीक्षण होना चाहिए, (2) पांचों इंद्रिय सशक्त हों, (3) शरीर तंदुरुस्त हो, (4) स्वभाव अच्छा हो, (5) कुल अच्छा हो, (6) शरीर के अंग सही हों, (7) सामग्री का भोग-उपभोग कर सकें एवं (8) आयु लंबी हो। यह आठों इच्छाएं तभी परिपूर्ण होंगी जब आठों कर्म खत्म होंगे।
राजेश जैन युवा ने बताया की
मुनिवर का नीति वाक्य
“‘आंतरिक दुश्मन को करो दफन, तभी मिलेगा प्रभु का शरण”

आज प्रवचन में आचारण सूत्र के श्रवण के लिये लगभग 500 लोग उपस्थित थे। इस अवसर पर श्रीमती मोहनबेन मुकेशजी मनोज जी पोरवाल, अजयजी अक्षयजी सुराना परिवार एवं एक सदग्रहस्त की तरफ से सभी को प्रभावना की गयी।

भवदीय
राजेश जैन युवा 94250-65959

रिपोर्ट- अनिल भंडारी

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