इंदौर मध्य प्रदेश
मुनिराज श्री ऋषभरत्नविजयजी ने समझाया कि, जीव किस तरह से विषय-कषाय के मकड़ जाल में उलझकर भवों के भंवर में फंसा हुआ है। जीव गतिमान है परंतु प्रगति शून्य है क्योंकि वह घानी के बैल की तरह निरंतर चल रहा है परंतु उसका सिरा नहीं मिला। जीव विषय-कषायोँ में मकड़ी एवं रेशम के कीड़े की तरह स्वयं के जाल में उलझा हुआ है और अपने प्राण भी त्याग देता है। प्रगति के लिये जिनशासन एवं जिनवाणी हमको प्राप्त है जिसका उपयोग कर इस जाल से मुक्ति मिल सकती है।
हमको यह प्रतीत होता है कि, विषय-कषाय (क्रोध, मान, माया एवं लोभ) से लाभ प्राप्त हो रहा है परंतु यह केवल हमारी मृगतृष्णा है क्योंकि अंत में हमको लगता है कि, यह सब क्यों किया या यह नहीं करते तो कितना अच्छा होता। परमात्मा के दरबार में किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नहीं है उनके मार्ग पर चलना या नहीं चलना यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। क्रोध चेहरे पर दिखाई देता है परंतु मान, माया एवं लोभ दिखाई नहीं देते है। मान (अहंकार), लोभ मन में रहता है एवं माया का मायावी रूप होता है जो महसूस होता है पर दिखाई नहीं देता है। चारों को चांडाल चौकड़ी कहा जाता है।
सिकंदर पूरी दुनिया पर विजय प्राप्त करने निकला था और सभी का धन एकत्र किया परंतु अंत में वही धन उसके किसी काम नहीं आया और अंतिम यात्रा में दुनिया के सामने हाथ फैला कर यह संदेश दिया कि धन-दौलत एवं शक्ति साथ नहीं जाने वाली। उसकी आँखें अंतिम समय में खुल गयी थीं परंतु हमारी आँख कब खुलेगी ? क्रोध को तो परमात्मा दूर करवा सकते हैं परंतु लोभ को तो स्वयं ही दूर करना पड़ेगा क्योंकि वह सभी पापों का बाप है। मद/अहंकार में “जिसका किया मान, उसको नहीं मिला वही सम्मान”। राजेश जैन युवा ने बताया की
मुनिवर का नीति वाक्य
“‘क्रोध क्षण जीवी, अहंकार चिरंजीवी”
राजेश जैन युवा 94250-65959
रिपोर्ट- अनिल भंडारी
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