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निजी शालाओं में सुविधाओं की कमी, शिक्षित बेरोजगारों का धडल्ले से हो रहा शोषण फिर भी प्रशासन मौन

डिंडौरी मध्यप्रदेश

डिण्डौरी नगर सहित शहपुरा, मेंहदवानी व संपूर्ण जिले में शिक्षा के नाम पर लोगों द्वारा जिस प्रकार से दुकानदारी चलाई जा रही है उससे बच्चों का भविष्य बनना कम और स्कूल संचालको का निजी स्वार्थ ज्यादा ही नजर आ रहा है। क्योंकि शहर के साथ साथ ग्रामीण क्षेत्रों में दिन दिन ऊग रही शिक्षण संस्थाओं की सच्चाई पर गौर किया जावे तो वह स्कूल शिक्षा विभागों के नियमों के विरूद्ध स्थापित, सुविधाहीन शालायें शिक्षा के नाम पर व्यवसाय करने में जुटी हुई हैं। इस प्रकार के विद्यालयों में मूलभुत सुविधाओं के अलावा विशेषज्ञ शिक्षकों एवं खेल मैदानों का अभाव एक विकट समस्या बना हुआ है। जिसका प्रभाव छात्रों पर पड़ रहा है, शहर में स्थापित निजी शालायें मात्र शिक्षा की दुकान बनकर रह गई हैं। ऐसी दुकाननुमा शालाओं की शिक्षा हमारे होनहारों पर क्या असर छोड़ेगी इससे सभी अंजान नहीं हैं। शिक्षा की दुकान बनी निजी शालाओं को बढ़ावा देने में पालक भी कम दोषी नहीं हैं क्योंकि वे जानबूझकर निजी शालाओं के आकर्षण में पड़कर बच्चों का दाखिला करवा देते हैं और बाद में पछताते हैं। इस समय नगर के आलवा ग्रामीण क्षेत्रों में देखा जावे तो ऐसी अनेक शिक्षण संस्थायें है जहाँ पर मात्र 12 वीं पास से कॉलेज कर रहे युवक युवती अल्प वेतन मानदेय पर शिक्षक के रूप में सेवाये देकर बेरोजगारी के समय में शोषित हो रहे हैं। इन निजी शालाओं में ना तो छात्र-छात्राओं को पीने के लिये शुद्ध पेयजल, पेशाबघर, शौचालय, खेल मैदान व बैठने के लिये हवादार कमरे भी नहीं हैं। नगर में ऐसी कई शालायें तो किराये के रहवासी मकानों में लग रहीं हैं। इसके बाद भी शिक्षण संस्थाओं के संचालक पालकों से सभी व्यवस्थाओं
के नाम पर मनमानी फीस वसूल रहे हैं। वही कुछ स्कूलों के संचालको की बात करे तो वह गांव में इस प्रकार से अग्रेजी स्कूलों का संचालन कर रहे है, जिन्हे खुद तो अग्रेजी आती नही है और वह बच्चों को शिक्षा देने वाले शिक्षकों का संचालन करने बैठे हुए है। क्या इन स्कूलों में बच्चों द्वारा दी जाने वाली फिस के मुताबिक पढ़ाई हो पायेगी? पालकों को चाहिये कि वे शिक्षण सत्र शुरू होने के पूर्व अपनी जागरूकता का परिचय देते हुये पूर्ण नियम कानून से चलने वाली शालाओं में ही अपने बच्चों को प्रवेश दिलाये जिससे उनका भविष्य सँवर सके तथा शिक्षा विभाग से अपेक्षा की जाती है कि गाजर घास की तरह उग रही शिक्षण संस्थाओं की जाँच करे जो नियमों को दर किनार करके जेबें भरने में लगे हुई हैं। विदित हो कि शिक्षण संस्थाओं में बच्चों को खेलने के लिये निश्चत भूखंड का मैदान होना जरूरी है किंतु यहाँ जो देखने में आ रहा है उससे स्पष्ट रूप से लग रहा है कि शिक्षण संस्थाओं के नाम पर मात्र पैसा कमाया जा रहा है। किराये के मकानों में संचालित होने वाली अग्रेजी माध्याम की एक संस्था का तो यह है हाल है कि ग्रामीण क्षेत्रों से बच्चों वाहन सुविधा के नाम पर पैसा लिया जा रहा है, और उसी वाहन में खुलेआम दिन भर सवारी ढ़ोई जा रही है, उन्ही के साथ बच्चों को भी भेड़-बकरी की तरह बैठाकर घर पहुंचा दिया जाता है। यदि इस प्रकार की संस्थाओं की ईमानदारी से जांच हो जावे तो जितनी फीस बसूली जाती है उतनी सुविधाएं नजर नहीं आ रही है।

रिपोर्ट अखिलेश झारिया

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