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भारत में अदालतों में लंबित मुकदमों की समस्या और उनके निपटारे के उपाय

भारत की न्याय प्रणाली का एक प्रमुख मुद्दा अदालतों में मामलों का लंबित होना है। देश की अदालतों में करोड़ों की संख्या में केस पेंडिंग हैं, जिससे न्याय पाने की प्रक्रिया अत्यधिक लंबी और कठिन हो गई है। लोगों को न्याय केवल मिलना ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। न्याय मिलने में देरी कई बार अन्याय का कारण बन जाती है। न्याय प्रणाली में सुधार की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक महसूस की जा रही है ताकि आम जनता को समय पर न्याय मिल सके।
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (National Judicial Data Grid) के अनुसार, 2024 तक भारत में करीब 4.5 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। इनमें से लगभग 3 करोड़ मामले निचली अदालतों में लंबित हैं, जबकि उच्च न्यायालयों में लगभग 57 लाख और सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 70,000 मामले लंबित हैं।

लंबित मामलों के प्रमुख कारण
1. न्यायाधीशों की कमी:
भारत में न्यायालयों की लचर गति का एक बड़ा कारण अदालतों में खाली पदों की भरमार है। उच्च न्यायालयों में करीब 27% पद खाली हैं, जबकि निचली अदालतों में यह संख्या 30%तक है। न्यायाधीशों की कमी के कारण न्यायालयों में मामलों की सुनवाई और निपटारा देरी से हो पाता है।भारत में आबादी के अनुसार न्यायाधीशों की संख्या बहुत कम है। आंकड़ों के अनुसार, प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश उपलब्ध हैं। इस कारण कई मामले सालों तक बिना सुनवाई के लंबित रह जाते हैं।

2. केसों की अत्यधिक संख्या: अदालतों में नए मामलों की बढ़ती संख्या लंबित मामलों के निपटारे को और कठिन बनाती है। छोटे और सामान्य विवादों के लिए भी लोग अदालतों का रुख करते हैं, जिससे केसों की संख्या अत्यधिक बढ़ जाती है।

3. कानूनी प्रक्रिया की जटिलता: भारतीय न्याय प्रणाली की कानूनी प्रक्रिया काफी जटिल और लंबी है। इस प्रक्रिया में कई चरण होते हैं, जिसमें दस्तावेज़ों की तैयारी, सुनवाई, सबूतों की समीक्षा और अपील आदि शामिल हैं। यह सभी चरण समय लेते हैं और प्रक्रिया को धीमा बनाते हैं।

4. सरकारी मामले: सरकारी विभागों से जुड़े मामले अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित हैं। लगभग 50% से अधिक मामलेकिसी न किसी रूप में सरकारी पक्ष से जुड़े होते हैं, जिनमें देरी सरकार की ओर से जवाब या कार्रवाई में धीमापन होने के कारण होती है।

समाधान
1. न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना: सबसे महत्वपूर्ण उपाय न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करना है। निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक न्यायाधीशों के रिक्त पदों को शीघ्रता से भरा जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यायिक प्रणाली में और न्यायाधीशों की नियुक्ति की जानी चाहिए ताकि मामलों की सुनवाई में तेजी लाई जा सके।

2. वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) भारतीय न्याय प्रणाली में एक प्रभावी तरीका है, जो अदालतों पर बोझ कम करने और मुकदमों के शीघ्र निपटारे में सहायक है। ADR के अंतर्गत मध्यस्थता (mediation), सुलह (conciliation), और पंचायती समाधान (arbitration) जैसे उपाय शामिल हैं। ये विधियाँ न केवल विवादों को जल्दी हल करती हैं, बल्कि अदालत की तुलना में कम खर्चीली और गोपनीय भी होती हैं। पारिवारिक और छोटे विवादों के मामलों में ये विशेष रूप से कारगर साबित हो रही हैं, जिससे परिवारों पर आर्थिक बोझ भी कम होता है।

भारत में ADR का संवैधानिक आधार अनुच्छेद 39-ए में निहित है, जो समान और निःशुल्क विधिक सहायता का प्रावधान करता है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 89 के तहत मध्यस्थता, सुलह और न्यायिक समाधान को कानूनी रूप से मान्यता दी गई है। मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (2021 में संशोधित) के तहत सिविल और शमनीय अपराधों के लिए बाध्यकारी निर्णय दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, 2021 के संशोधन में भारतीय मध्यस्थता परिषद की स्थापना का उल्लेख है, जो ADR प्रक्रियाओं को कानूनी आधार प्रदान करेगी।

इस कानून के तहत विवाद समाधान के लिए 180 दिनों की समय सीमा तय की गई है, जिससे त्वरित न्याय सुनिश्चित हो सके। मध्यस्थता प्रक्रिया के दौरान अगर किसी पक्ष को संतुष्टि नहीं मिलती, तो वह प्रक्रिया से बाहर हो सकता है। ADR का उद्देश्य सिर्फ कानूनी विवादों को सुलझाना नहीं है, बल्कि सामाजिक बदलाव लाना भी है, जैसा कि मुख्य न्यायाधीश ने इसे “सामाजिक परिवर्तन का साधन” कहा है।

3. ई-कोर्ट्स और डिजिटलाइजेशन: न्यायालयों में डिजिटल प्रणाली लागू करने से सुनवाई प्रक्रिया में तेजी लाई जा सकती है। ई-कोर्ट परियोजना के तहत मामलों की ई-फाइलिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई, और फैसलों की ऑनलाइन उपलब्धता से न केवल समय की बचत होगी, बल्कि पारदर्शिता भी बढ़ेगी। न्याय तंत्र तक पहुंच भी भारत में एक बड़ी समस्या रही है। इस तंत्र में तकनीकों के प्रयोग के बाद ई-अदालतों की भूमिका बढ़ी है। यदि ई-लोक अदालतों की भूमिका बढ़ाई जाए, तो न्याय उपलब्धता की स्थिति में निश्चित रूप से सुधार होगा। मध्यस्थता को प्रोत्साहित करने से ही ऐसा हो सकेगा। गौरतलब है कि वर्ष 2019 में आयोजित मध्यस्थता पर सिंगापुर कन्वेंशन अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता निपटान समझौते के प्रवर्तन को सुनिश्चित करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। भारत द्वारा शीघ्र ही इसे अनुमोदित करने की आशा है।

4. मामलों की त्वरित श्रेणीकरण और प्राथमिकता: अदालतों में मामलों का श्रेणीकरण और प्राथमिकता के आधार पर निपटारा किया जाना चाहिए। गंभीर आपराधिक मामलों, जहां व्यक्ति की स्वतंत्रता या जीवन दांव पर हो, उन पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसके अलावा, पुराने लंबित मामलों का जल्द निपटारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

5. सरकारी विवादों में सुधार: सरकार को अपने विभागों में विवाद समाधान प्रणाली को मजबूत करना चाहिए ताकि सरकारी मामलों को अदालत में लाने से पहले ही सुलझाया जा सके। इसके अलावा, सरकार को अदालती मामलों में जवाब देने और कार्रवाई करने की प्रक्रिया को तेज करना चाहिए।

6. कानूनी सुधार: कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं को कम करने के लिए आवश्यक सुधार किए जाने चाहिए। कानूनों में सरलता लाने और अदालती प्रक्रिया को सुगम बनाने से न्यायिक प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है। इसके साथ ही, न्यायालयों में समय प्रबंधन पर जोर दिया जाना चाहिए ताकि मामलों की सुनवाई बिना देरी के पूरी हो सके।

भारत में लंबित मुकदमों की समस्या न्यायिक प्रणाली की एक गंभीर चुनौती है, जो न्याय में देरी का कारण बनती है और आम जनता के न्याय प्रणाली में विश्वास को कमजोर कर सकती है। इस समस्या का समाधान न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने, कानूनी प्रक्रियाओं को सरल बनाने और वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को बढ़ावा देने में निहित है। ADR, विशेषकर मध्यस्थता, त्वरित और सस्ती न्याय प्रक्रिया प्रदान करने का एक प्रभावी तरीका है, जिससे छोटे विवादों का शीघ्र निपटारा किया जा सकता है।

प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने ADR और मध्यस्थता की प्रक्रिया पर जोर दिया है, जिससे समाज में विचारों का आदान-प्रदान हो सके और सामाजिक संघर्षों को कम किया जा सके। इसके साथ ही, संविधान के अनुच्छेद 39-ए से प्रेरित लोक अदालतों का प्रावधान भी न्याय तंत्र को मजबूत करता है। लोक अदालतें वाद-पूर्व विवादों का निराकरण करती हैं, और इनके निर्णयों के खिलाफ अपील का प्रावधान नहीं है, जो इन्हें न्यायिक प्रक्रिया में एक सशक्त विकल्प बनाता है।

दिल्ली मध्यस्थता केंद्र का उदाहरण इसका प्रमाण है, जहां 98.2% मामलों का सफल निपटारा हुआ है, जो ADR की सफलता का प्रतीक है। लोक अदालतों के साथ-साथ राष्ट्रीय और ई-लोक अदालतें भी इस दिशा में प्रभावी साबित हो रही हैं। न्यायपालिका और सरकार को मिलकर ADR और लोक अदालतों जैसे वैकल्पिक उपायों को आगे बढ़ाना चाहिए, जिससे न्याय तंत्र को अधिक सक्षम और तेज़ बनाया जा सके, और न्याय शीघ्रता से प्रदान हो सके।

( राजीव खरे स्टेट ब्यूरो चीफ़ छत्तीसगढ़ )

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