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इतिहास और संविधान के नाम पर राजनीतिक कबड्डी और निराश जनता

भारतीय राजनीति में इतिहास और संविधान को लेकर बहसें नई नहीं हैं। राजनीतिक दल अक्सर अपनी विचारधाराओं, नीतियों और एजेंडा को मजबूत करने के लिए इतिहास और संविधान का सहारा लेते हैं। हाल ही में यह प्रवृत्ति और अधिक तीव्र हो गई है, जहां सियासी दल एक-दूसरे पर ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने और संविधान की गलत व्याख्या करने का आरोप लगा रहे हैं।

इतिहास को अपने पक्ष में मोड़ने का प्रयास राजनीतिक दलों के लिए कोई नई बात नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर संविधान निर्माण तक, हर महत्वपूर्ण घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा गया है। मौजूदा समय में, राजनीतिक दल अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इतिहास का इस्तेमाल इस तरह कर रहे हैं, मानो यह उनकी वैचारिक कबड्डी का मैदान हो।

संविधान, जो देश की मूलभूत व्यवस्था और लोकतांत्रिक मूल्यों का आधार है, को भी इस संघर्ष में खींचा जा रहा है। सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल, दोनों ही, संविधान की अपनी-अपनी व्याख्या करते हुए एक-दूसरे पर लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संविधान, जो राष्ट्रीय एकता और प्रगति का प्रतीक है, अब राजनीतिक दांवपेंच का हिस्सा बन चुका है।

भारतीय इतिहास के विविध पक्षों को लेकर अक्सर विवाद होते रहे हैं। मुगलों के योगदान से लेकर आजादी की लड़ाई में नेताजी सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और महात्मा गांधी की भूमिकाओं तक, हर घटना को अलग-अलग राजनीतिक नजरिये से देखा गया है। सत्ताधारी दल के लिए यह एक अवसर है कि वह अपनी विचारधारा के अनुरूप इतिहास का नया पाठ पढ़ाए। वहीं, विपक्ष इसे ऐतिहासिक तथ्यों के साथ खिलवाड़ मानता है। उदाहरण के तौर पर, हाल ही में पाठ्यक्रम में बदलाव और स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की भूमिकाओं पर उठाए गए सवाल इस बहस को और अधिक तीव्र करते हैं।

संविधान की दुहाई देना भारतीय राजनीति में एक आम रणनीति बन गई है। जब सत्ताधारी दल कोई बड़ा कदम उठाता है, जैसे कि संवैधानिक संशोधन, तो विपक्ष इसे संविधान के मूलभूत ढांचे पर हमला करार देता है। दूसरी ओर, विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शनों और नीतियों को भी सत्ताधारी दल लोकतंत्र विरोधी बताता है। हालिया घटनाओं, जैसे कि राज्यों के अधिकारों पर केंद्र की नीतियों का प्रभाव, संसद के कामकाज को लेकर जारी गतिरोध, और न्यायपालिका के साथ सरकार के संबंध, इन सबने संविधान की व्याख्या को लेकर एक नई बहस को जन्म दिया है।

मीडिया और आम जनता भी इस ‘इतिहास की कबड्डी’ और ‘संविधान की लड़ाई’ में अहम भूमिका निभाते हैं। जहां एक ओर मीडिया कुछ घटनाओं को सनसनीखेज बनाकर पेश करता है, वहीं जनता अक्सर सोशल मीडिया के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करती है। दुर्भाग्यवश, यह विचार-विमर्श कभी-कभी असत्यापित तथ्यों और ध्रुवीकृत दृष्टिकोणों का शिकार हो जाता है।

इतिहास और संविधान को लेकर राजनीतिक संघर्ष भारतीय लोकतंत्र की बहस को जीवंत बनाता है, लेकिन यह जरूरी है कि यह बहस रचनात्मक और तथ्यों पर आधारित हो। इतिहास और संविधान के सही अध्ययन के लिए शिक्षा प्रणाली को और अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाना चाहिए। मीडिया को तथ्यों को जांचने और सटीक जानकारी प्रस्तुत करने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।आम जनता को भी ऐतिहासिक और संवैधानिक तथ्यों की सही जानकारी रखनी चाहिए, ताकि वे किसी भी प्रचार से प्रभावित न हों।

भारतीय राजनीति में इतिहास और संविधान की लड़ाई महज विचारधारा की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह देश के भविष्य को प्रभावित करने वाली एक गंभीर चुनौती है। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि इतिहास और संविधान किसी विशेष पार्टी की बपौती नहीं हैं। इन्हें तोड़-मरोड़कर पेश करना न केवल लोकतंत्र को कमजोर करता है, बल्कि देश की एकता और अखंडता पर भी सवाल खड़े करता है। ऐसे में, आवश्यकता इस बात की है कि राजनीतिक दल अपनी सीमाएं समझें और इतिहास तथा संविधान को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने के बजाय, देश की प्रगति और विकास के लिए सही दृष्टिकोण अपनाएं।

( राजीव खरे चीफ ब्यूरो छत्तीसगढ़)

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