हरियाणा विधानसभा चुनावों का इतिहास राजनीतिक अस्थिरता और जातीय समीकरणों से भरा रहा है। 2014 और 2019 के चुनावों में भाजपा ने राज्य में प्रभावी रूप से सत्ता पर कब्जा किया, जबकि इससे पहले कांग्रेस ने लंबे समय तक हरियाणा की राजनीति पर अपना दबदबा बनाए रखा था। 2019 के चुनावों में भाजपा ने सत्ता तो पाई, लेकिन किसानों के मुद्दों और बेरोजगारी जैसे मामलों ने उसकी स्थिति कमजोर कर दी। आगामी चुनावों में भाजपा को सत्ता बचाने की चुनौती होगी, जबकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) जनता के असंतोष को भुनाने और जाट समुदाय के समर्थन को पाने की कोशिश करेंगी। हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), और आम आदमी पार्टी (आप) की राजनीतिक रणनीतियाँ और संभावनाएँ महत्वपूर्ण होंगी, क्योंकि राज्य की राजनीति कई कारकों पर निर्भर करती है।
भाजपा हरियाणा में एक मजबूत राजनीतिक ताकत रही है। मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में पार्टी ने राज्य में दो बार सत्ता हासिल की है। भाजपा की कोशिश होगी कि वह सरकार के विकास कार्यों, किसानों के कल्याण, और बुनियादी ढांचे के विकास पर जोर देकर सत्ता में लौटे। हालाँकि, किसान आंदोलन और रोजगार से जुड़े मुद्दे भाजपा के सामने चुनौतियाँ पैदा कर सकते हैं। जातीय समीकरण भी इसमें अहम भूमिका निभाएंगे, खासकर जाट समुदाय के समर्थन के लिहाज से। भाजपा का मुख्य फोकस गैर-जाट वोटबैंक पर रहेगा, खासकर शहरी क्षेत्रों और ओबीसी समुदायों में।
भाजपा की जीत काफी हद तक इस पर निर्भर करेगी कि वह कैसे किसानों और युवाओं की नाराज़गी को संभालती है और जाट समुदाय के बीच अपने वोटबैंक को कैसे मजबूत करती है।
यदि भाजपा विकास और राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है, तो वह अपनी पकड़ बनाए रख सकती है, लेकिन क्षेत्रीय और जातीय समीकरण इसे प्रभावित करेंगे।
कांग्रेस हरियाणा में परंपरागत रूप से एक मजबूत पार्टी रही है, लेकिन हाल के वर्षों में उसे भाजपा के सामने संघर्ष करना पड़ा है। भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे वरिष्ठ नेताओं के नेतृत्व में पार्टी ने अपनी राजनीतिक जमीन को फिर से मजबूत करने की कोशिश की है। कांग्रेस किसान आंदोलन से उत्पन्न असंतोष और भाजपा सरकार की विफलताओं को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ सकती है। साथ ही, जाट समुदाय का समर्थन पाने की कोशिश भी करेगी, जो चुनावी नतीजों में निर्णायक हो सकता है। पार्टी में आंतरिक कलह और गुटबाजी भी एक चुनौती हो सकती है, जिसे सुलझाना जरूरी होगा।
कांग्रेस को जाट समुदाय के समर्थन की सख्त जरूरत होगी, साथ ही उसे एकजुट रहकर चुनाव लड़ना होगा। यदि पार्टी आंतरिक संघर्षों से बचती है, तो उसकी संभावनाएं बढ़ सकती हैं। यदि वह भाजपा की कमजोरियों का सही तरीके से फायदा उठाती है और भाजपा की नीतियों को लेकर पर्याप्त नाराजगी पैदा कर पाती है, तो उसकी संभावना बेहतर हो सकती है, लेकिन भाजपा की सत्ता में रहते हुए कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं होगी।
आप (आम आदमी पार्टी) ने दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, और हरियाणा भी उसकी रणनीति का हिस्सा है। आप की कोशिश होगी कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी नीति को हरियाणा में भी सफलतापूर्वक पेश करे। पंजाब में पार्टी की जीत ने उसे हरियाणा में भी संभावनाओं की उम्मीद दी है। हालाँकि, आप को स्थानीय नेताओं और जमीनी संगठन को मजबूत करना होगा ताकि वह कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को चुनौती दे सके। आप का प्रभाव शहरी क्षेत्रों और युवा मतदाताओं पर हो सकता है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में उसे कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ सकता है।
आप के लिए हरियाणा में बड़ा आधार बनाना चुनौतीपूर्ण होगा, लेकिन यदि वह कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में प्रभाव डालती है, तो यह चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए परेशानी का कारण बन सकती है।
यदि आप कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मतदाताओं को आकर्षित करती है, तो वह कांग्रेस और भाजपा के वोटबैंक में सेंध लगा सकती है। इसके लिए आप को एक सशक्त स्थानीय नेतृत्व की जरूरत होगी। आप का जोर शिक्षा, स्वास्थ्य, और भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों पर रहेगा। आप किसानों और युवाओं को अपने पक्ष में लाने की कोशिश करेगी, साथ ही शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में आधार बनाने की। दिल्ली और पंजाब में आप की सरकार के प्रदर्शन को लोग कैसा आंकते हैं यह भी महत्वपूर्ण हो सकता है ।
अंततः चुनाव परिणाम काफी हद तक जातीय समीकरणों, मतदाताओं के स्थानीय मुद्दों, और इन पार्टियों की चुनावी रणनीतियों पर निर्भर करेंगे। हरियाणा विधानसभा चुनाव राज्य की राजनीति में नया अध्याय जोड़ने के लिए तैयार है, जहां जातीय समीकरण, विकास, और किसानों के मुद्दे निर्णायक भूमिका निभाएंगे। भाजपा, कांग्रेस, और आप के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिलेगी, और परिणाम पहले राज्य की और बाद में देश की भी राजनीतिक दिशा को प्रभावित करेंगे।
(राजीव खरे राष्ट्रीय उप संपादक)
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