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लेटरल एंट्री की नियुक्ति प्रक्रिया में यू टर्न लेने के पीछे की मजबूरियाँ और विरोध का दबाव

लेटरल एंट्री के तहत निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की शीर्ष सरकारी पदों पर नियुक्ति की योजना को केंद्र सरकार ने रद्द कर दिया है। इस निर्णय के पीछे विपक्ष का दबाव और गठबंधन सरकार की राजनीतिक मजबूरियाँ प्रमुख कारण हैं। यह योजना प्रगतिशील सोच का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य नौकरशाही में विशेषज्ञता लाना था, लेकिन चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी के कारण इसका तीव्र विरोध हुआ। विपक्षी दलों और राजग के कुछ सहयोगियों ने इस योजना में आरक्षण न होने पर आपत्ति जताई, जिससे सरकार को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना पड़ा।

हाल ही में, केंद्र सरकार ने वक्फ और प्रसारण विधेयकों पर भी अपने निर्णय बदले हैं, जो यह दर्शाता है कि गठबंधन की राजनीति और विपक्ष का दबाव सरकार की नीतियों पर असर डाल रहा है। विपक्ष की दलील है कि लेटरल एंट्री में आरक्षण न होने से सामाजिक न्याय के सिद्धांतों की अनदेखी हो रही है। वहीं, सरकार का तर्क है कि लेटरल एंट्री प्रक्रिया का विचार कांग्रेस सरकार के दौरान 2005 में पेश हुआ था और इसके पीछे प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें थीं।

हालाँकि, सरकार ने लेटरल एंट्री की प्रक्रिया को 2018 में शुरू किया, लेकिन अब विवाद और विपक्ष के विरोध के कारण इसे रद्द कर दिया गया है। सरकार के इस कदम को विपक्षी दलों के विरोध और संभावित राजनीतिक निहितार्थों को देखते हुए लिया गया माना जा सकता है। प्रशासनिक सुधारों के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति महत्वपूर्ण है, लेकिन इस प्रक्रिया में अधिकतम पारदर्शिता और सभी हितधारकों के विचारों का समावेश आवश्यक है।

( राजीव खरे राष्ट्रीय ब्यूरो)

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