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मुफ्त की रेवड़ियां अब अमेरिका में भी- चुनावी हथकंडा या जनसेवा?

 

हर चुनाव के करीब आते ही राजनीतिक दलों की ओर से मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रलोभनों की झड़ी लगा दी जाती है। यह एक ऐसा चलन है, जो भारतीय राजनीति में काफी समय से देखा जा रहा है, और अब यह अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी अपना प्रभाव दिखाने लगा है। मुफ्त सुविधाओं और संसाधनों का वादा करके वोटरों को आकर्षित करना आजकल चुनावी रणनीति का एक मुख्य हिस्सा बन गया है। यह विचारणीय है कि क्या यह प्रथा जनसेवा के नाम पर जनता को वास्तव में लाभ पहुंचाने के लिए है, या फिर केवल वोटों के लिए एक शार्टकट।

भारत में मुफ्त सुविधाओं की राजनीति की जड़ें काफी गहरी हैं। इसकी शुरुआत बड़े पैमाने पर तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने की थी, जिन्होंने अपने शासनकाल में कई मुफ्त योजनाओं की शुरुआत की। इसके बाद से यह प्रथा देश के विभिन्न राज्यों में फैलती चली गई। चाहे बिजली हो, पानी हो, शिक्षा हो या अन्य सुविधाएं, लगभग हर राजनीतिक दल ने इस चलन को अपनाया और जनता को मुफ्त सेवाएं देने का वादा किया। जयललिता के इस मॉडल ने कई अन्य राज्यों को प्रेरित किया और धीरे-धीरे यह राजनीति का एक महत्वपूर्ण हथकंडा बन गया।

हाल ही में, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी इस परंपरा को अपनाते हुए अपने चुनावी वादों में जनता को मुफ्त बिजली, पानी और शिक्षा का वादा किया। इसका सीधा प्रभाव देखा गया, जब उनके नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में सत्ता हासिल की। उनके इस मॉडल को कई अन्य राज्यों ने भी अपनाया और मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का सिलसिला बढ़ता चला गया। कभी दूसरी पार्टियों की रेवड़ी बाँटने की आलोचना करने वाली भाजपा भी अब इसमें पीछे नहीं है, लाडली बहना, महतारी वंदन जैसी कई योजनाओं के साथ वह भी हर चुनाव में रेवड़ी बाँटने लगी है।

भारत में तो यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है, लेकिन अब अमेरिका में भी इसका असर दिखाई देने लगा है। अगले महीने होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प ने भी मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का वादा किया है। सत्ता में वापस आने के लिए ट्रम्प ने हाल ही में डेट्रॉइट इकोनोमिक क्लब में भाषण देते हुए वादा किया कि अगर वे चुने जाते हैं तो 12 महीनों के भीतर ऊर्जा और बिजली की दरों को आधा कर देंगे।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्रम्प के इस वादे पर प्रतिक्रिया देते हुए सोशल मीडिया पर कहा, “मुफ्त की रेवड़ी अब अमेरिका तक पहुंच गई है।” इससे साफ है कि यह चलन अब सिर्फ भारत तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश में भी इसकी गूंज सुनाई दे रही है।

चुनावों में मुफ्त सुविधाओं का वादा करना न सिर्फ एक आसान रणनीति बन गया है, बल्कि यह मतदाताओं के बीच भी एक लोकप्रिय तरीका है। जब कोई पार्टी बिजली, पानी, गैस या शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को मुफ्त देने का वादा करती है, तो जनता का एक बड़ा वर्ग उससे आकर्षित होता है। लेकिन क्या यह स्थायी रूप से जनता के हित में होता है, या यह केवल एक अस्थायी लाभ है?

उदाहरण के तौर पर, हरियाणा में हाल ही के चुनावों में कांग्रेस ने 300 यूनिट मुफ्त बिजली, रसोई गैस सिलेंडर 500 रुपए में देने का वादा किया। इसी तरह, भाजपा ने भी चुनावी घोषणापत्र में कई मुफ्त सेवाओं की घोषणा की, जिनमें महिलाओं को 2100 रुपए मासिक पेंशन और मुफ्त डायलिसिस की सुविधा शामिल थी। यह सवाल उठता है कि क्या इस तरह की घोषणाएं वास्तव में जनता के लिए दीर्घकालिक लाभकारी होती हैं या सिर्फ चुनावी जुमले बनकर रह जाती हैं?

मुफ्त सुविधाओं और संसाधनों का वादा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने का एक शक्तिशाली हथकंडा बन चुका है। हालांकि, इसका दीर्घकालिक प्रभाव जनता के हित में कितना है, इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। क्या यह जनता की भलाई के लिए एक स्थायी समाधान है, या केवल वोट बटोरने का एक तात्कालिक तरीका? जैसे-जैसे यह प्रवृत्ति भारत से निकलकर अमेरिका जैसे देशों में भी फैल रही है, वैसे-वैसे यह सवाल और भी महत्वपूर्ण होता जा रहा है।
( राजीव खरे राष्ट्रीय उप संपादक)

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