इंदौर मध्य प्रदेश
मुनिराज श्री ऋषभ रत्नविजयजी ने श्री अष्टापदजी की भाव यात्रा में बताया कि, इस तीर्थ पर कई आश्चर्यजनक घटनायें घटित हुई है। रावण का तीर्थंकर कर्म का बंध इसी पर्वत पर हुआ था जब बाली संयम लेकर मुनि बने और अष्टापद पर तपस्या कर रहे थे तब दशानन वहाँ से जाते हुए बाली के तप के कारण अटक जाते है। अपनी पुरानी हार का बदला लेने की नियत से दशानन ने श्री अष्टापद पर्वत को तलहटी से उठाने का प्रयास किया। पर्वत के हिलते ही बाली ने अपने पैर के अंगूठे से उसको दबाया तब दशानन उसमें दबने लगे और दर्द के कारण जो कराहने/रोने की आवाज निकली उसी कारण दशानन का नाम रावण हुआ। बाली ने उनको क्षमा किया। रावण भी बाली से क्षमायाचना करते है एवं अपनी पत्नी की साथ इसी तीर्थ पर्वत के मंदिर में प्रभु भक्ति में लीन होकर वीणा बजाते है तभी उसका तार टूट जाता है, भक्ति में रुकावट न हो इसलिये अपनी विद्या से पैर की नस निकालकर वीणा की तान बना दी एवं तीर्थंकर नाम कर्म बांधा।
वीरमती सती ने इसी तीर्थ के मंदिर में 24 भगवानों की प्रतिमाओं के मस्तक पर रत्न से प्रकाशित तिलक लगाए थे। अगले भव में दमयन्ती बनी और अंधेरे में सूर्य के समान उजाला करने वाला तिलक मिला जिससे वह पति के साथ जंगल में घोर अंधकार को दूर कर पायी।
भगवान महावीर के उपदेश से अष्टापद तीर्थ की महिमा जानकर 1500 तापस ने तप साधना करके चड़ने का प्रयास किया। श्री गौतम स्वामी भी सूर्य की किरण पकड़कर श्री अष्टापद तीर्थ के मंदिर पर पहुँच कर परमात्मा के दर्शन करते हुए जगचिन्तामणी आदि सूत्र की रचना की। उनकी लब्धि देखकर सभी तापस उनके शिष्य बने। श्री गौतम स्वामी ने अपनी लब्धि से एक कटोरा खीर से सभी तापस का भरपेट पारणा करवाया और वहीं पर सभी को केवल ज्ञान हो गया। प्रभु ने बताया उनके प्रति स्नेह के कारण श्री गौतम स्वामी का केवल ज्ञान नहीं हो पा रहा है और उनके जाने के बाद केवल ज्ञान होगा।
वर्तमान काल में वीरसुंदरसूरी म.सा. ने यक्ष की साधना की जिसने प्रसन्न होकर उनको अष्टापद तीर्थ की यात्रा करवायी। वहाँ से वे स्फटिक धातु का एक विशाल चावल का दाना लेकर आये जिसको पाटन के मंदिर में रखा गया था।
मुनिराज बताया कि इसी प्रकार की भाव यात्रायेँ आगे भी करवायी जायेंगी। इस अवसर पर पंकज भाई शाह, महेश कोठारी, प्रमोद पोरवाल,उषा रांका एवं लीन सकलेचा आदि समाज जन उपस्थित थे। रिपोर्ट अनिल भंडारी
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