इंदौर मध्य प्रदेश
मुनिराज श्री ऋषभरत्नविजयजी ने प्रवचन में दुःखों के कारण और निवारण के संबंध में चर्चा की। जीव चाहता है उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण हो पर ऐसा नहीं होता है और मनुष्य सदा सदमे में रहता कि उसकी मन की बात पूर्ण नहीं हुई। जीव की परेशानी के पाँच कारण है।
1. अभाव अपेक्षा अभाव की जननी है। वस्तुओं के पाने की चाहत जब पूर्ण नहीं हो पाती है तब अभाव का भाव उत्पन्न हो जाता है एवं परेशानी का कारण बन जाता है। जो सुख हमारे पास नहीं है परंतु दूसरे के पास है तब हममें उस सुख को प्राप्त करने अपेक्षा उत्पन्न हो जाती है और जब वह सुख नहीं मिलता है तो हम परेशान हो जाते हैं जो हर समस्या की जड़ है।
2. वियोग – आसक्ति से भरपूर संयोग जब छूटता है या वियोग होता है तब मनुष्य बहुत दुःखी होकर परेशान हो जाता है। इसलिये किसी चीज का वियोग भी हमारी परेशानी का कारण बन जाता है। यदि जीव में भौतिक सुखों के विनाश होने की धारणा को समझता है तो वियोग का दुःख नहीं होगा। जीव को ‘होने का सुख नहीं, खोने का दुःख है। इस तथ्य को माने कि, यह सुख भी चला जायेगा तो कभी दुःख नहीं होगा।
3. कल्पना– अभाव एवं वियोग बिना आमंत्रण के आ जाते हैं परंतु कल्पना का दुःख बिना आमंत्रण के हमारे पास नहीं आता है। कल्पना हमारे दुःखों का सबसे महत्वपूर्ण कारण है। हम कल्पना में डूबे रहकर दुखी रहते हैं। बहुत से दुःख जीवन में होते नहीं है फिर भी केवल कल्पना करके दुःखी होते है।
4. अल्पता – मेरे पास अमुक सुख/वस्तु की मात्रा अल्प है यह भावना दुःख का कारण है। जो मिला है जितना मिला है वह पर्याप्त है तो कभी परेशानी नहीं होगी। कमी की सोच गमी में बदल जाती है इसलिये ‘जो प्राप्त है वह पर्याप्त है के नियम का अनुसरण करेंगे तो कभी दुःख नहीं आएगा।
5. असंतोष – अभाव, वियोग एवं अल्पता की समस्याएं पुण्यों के उदय से समाप्त हो सकती हैं परंतु असंतोष की भावना मन के भावों से ही दूर होगी। परमात्मा भी असंतुष्ट को संतुष्ट नहीं कर सकते। सबसे अमीर वही है जिसके पास संतोष रूपी धन है।
अभाव को टालने पर, वियोग को छोड़ने पर, कल्पना को तोड़ने पर, अल्पता को भूलने पर एवं असंतोष को फेंकने पर दुःख एवं परेशानी कभी नहीं होगी।
राजेश जैन युवा ने बताया की मुनिवर का नीति वाक्य –
“‘प्राप्त में ही प्रसन्नता, प्रगति का परिचायक है”
राजेश जैन युवा 94250-65959
रिपोर्ट- अनिल भंडारी
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