आलेख
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कल 17 सितंबर को 74वां जन्मदिन मनाया गया। यह उनके जीवन के एक विशेष दौर, जिसे “अमृतकाल” कहा जा सकता है, की शुरुआत है। मोदी ने समय की चुनौतियों और कठिनाइयों को सफलतापूर्वक पार करते हुए न केवल भारतीय राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई है, बल्कि विश्व मंच पर भी भारत की गरिमा को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है।
1950 में गुजरात के वडनगर में जन्मे नरेंद्र मोदी ने जीवन की प्रारंभिक शिक्षा समाज से प्राप्त की। उनके अनुभव और शिक्षाएं ताउम्र उनके साथ रहीं। जब भी उन्हें किसी निर्णय के लिए दिशा की आवश्यकता महसूस हुई, उनके 21 वर्ष तक के जीवन के अनुभव ने उन्हें सही मार्गदर्शन दिया। 1971 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रचारक बने, जहां उन्हें यह सीख मिली कि राष्ट्र के लिए केवल मरना ही नहीं, बल्कि राष्ट्र के लिए जीना और संघर्ष करना भी महान कार्य है। इस प्रेरणा के साथ, उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन में आने वाली सभी कठिनाइयों का सामना किया और देशभर में घूमकर स्वामी विवेकानंद की तरह भारत माता की सेवा का संकल्प लिया।
आरएसएस की शाखाओं में होने वाली प्रार्थना की अंतिम पंक्ति “परं वैभवं नेतुमेतत स्वराष्ट्रम्” यानी ‘राष्ट्र को सर्वोच्च गौरव तक पहुंचाने’ का विचार मोदी के जीवन का ध्येय बन गया। 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने भारत के खोए हुए गौरव को लौटाने की दिशा में कार्य किया। इसके बाद प्रधानमंत्री बनकर उन्होंने ऐसे ऐतिहासिक फैसले लिए, जिन्हें देखकर दुनिया हैरान रह गई। एक चाय बेचने वाले से लेकर आरएसएस के प्रचारक, भाजपा के संगठन मंत्री, गुजरात के मुख्यमंत्री और फिर देश के प्रधानमंत्री तक का उनका सफर यह बताता है कि एक साधारण व्यक्ति भी अपने कर्म और संकल्प से राष्ट्र पुरुष बन सकता है।
( राजीव खरे राष्ट्रीय उप संपादक)
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