राष्ट्रीय समाचार
नई दिल्ली
इस वर्ष समूचा देश भीषण गर्मी की चपेट में है और ऊपर से पानी की कमी ने भी देश के की कई जगहों में हाहाकार मचा रखा है। हमेशा की तरह मानसून जल्दी आने के तमाम दावों को झुठलाकर देश के मध्य के राज्यों के आउटर पर खड़ा, लोगों को रुला रहा है। राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं है, जहां आग बरसाती गरमी में आम जनता पानी के लिये तरस रही है।
हालात ऐसे हैं कि देश की राजधानी की राज्य सरकार की एक मंत्री पड़ोसी राज्य हरियाणा से मानवता के आधार पर दिल्ली को अधिक पानी देने की गुहार कर रही है।
हमारे देश में जहां प्यासे को पानी पिलाना पुण्य माना जाता है, आज राजनीति और स्वार्थ के चलते पड़ोसी राज्य सरकार संवेदनहीनता दिखा दिखा रही है।
दिल्ली में जल संकट आज कोई पहली बार की बात नहीं है, यह तंत्र की लापरवाही और मुसीबत में राजनीतिक पराकाष्ठा का जीता जागता उदाहरण है, कि झुलसाती गर्मी में सरकार लोगों को पानी उपलब्ध नहीं करा पा रही है।
संपन्न वर्ग तो किसी तरह पानी की व्यवस्था कर रहा है, लेकिन गरीबों व मध्यवर्गीय लोगों को इस संकट से बहुत परेशानी हो रही है। विडंबना यह है कि पक्ष हो या विपक्ष, दोनों जल संकट का समाधान करने के बजाय राजनीति में लगे हैं। अब इसे बेशर्मी नहीं कहें तो और क्या कहें, कि भाजपा घड़े फोड़ रही है तो आप सरकार, केंद्र और पड़ोस की भाजपा सरकार को दोष दे रही है कि ये दोनों सहयोग करने के बजाय राजनीतिक लाभ लेने की कुचेष्टा कर रहे हैं। संकट के समय तो दुश्मन भी पसीज जाते हैं, फिर किस बात की राजनीति? वस्तुतः यह हमारे नीति-नियंताओं की नाकामी की पराकाष्ठा है कि वे नागरिकों को पानी जैसी मूलभूत सुविधा नहीं दे पा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि गर्मी में जल संकट पहली बार हो रहा है , पर हमारे नीति-नियंता कभी कोई दूर- दर्शिता दिखाने के बजाय हर साल प्यास लगने पर ही कुआँ खोदने का ढोंग रचते हैं ताकि पानी माफिया के ज़रिये खुद भी वारे न्यारे कर सकें। पक्ष हो या विपक्ष, राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार सभी, सब कुछ जानकर भी लोगों के हित के बजाय राजनीतिक लाभ लेने में लगे रहते हैं। क्यों नहीं सभी राजनीतिक दल मिलकर इस हर वर्ष के संकट को सकारात्मक रुख अपना कर का समाधान करने का प्रयास करते?
यह संकट तो मान लीजिए भविष्य का ट्रेलर है पर हमारे नीति-नियंताओं को देश के बंगलुरू और साउथ अफ़्रीका के केप टाउन के भयावह जल संकट का ध्यान रखना चाहिए। देश के कई अन्य भागों में भीषण जल संकट की आहट साफ सुनाई देने लगी है।
हमारे देश में अमीरों और गरीब व मध्यम वर्ग के लिये अलग-अलग मापदंड हैं। आधुनिकता के नाम पर एक ओर तो पानी का विलासिता से दुरुपयोग होता है , जहां अमीरों के यहाँ लबालब स्वीमिंग पुल हैं, उनकी चमचमाती गाड़ियाँ रोज धोई जाती हैं, लॉन सींचे जाते हैं, बड़े होटलों के टब और पूल में लोग नहाते हैं, तो वहीं दूसरी ओर लोगों को घर के लिये दिन में एक बाल्टी पानी जुटाने के लिये मारामारी करना पड़ता है।न तो , सब कुछ जानते हुए भी सरकार अमीरों को रोकती है, न होटलों पर पानी के अपव्यय को रोकने के लिये कोई कड़ी नीति बनाती है और न ही लाखों ग़रीबों को पर्याप्त पानी उपलब्ध करा पाती है। पानी का जब भी विलासिता से उपयोग होता है तो वहाँ किसी न किसी के हिस्से के पानी का दुरुपयोग ही होता है।
हमारे भाग्य विधाता हमें चाँद और मंगल के सपने दिखाते हैं , चांद पर पानी तलाशने की बातें करते हैं, पर हर घर तक पर्याप्त पानी नहीं दे पाते । और उन राजनेताओं का क्या कहें, जो वोट की राजनीति के लिये आये दिन बिजली-पानी मुफ्त देने की घोषणा करते हैं । जबकि देश के जल संसाधनों के सही उपयोग व वितरण के लिये इनके अपव्यय व प्रदूषण को रोकने के लिये प्रभावी नीति बनाने की ही नहीं बल्कि प्रभावी नियंत्रण की भी उतनी ही आवश्यकता है। आज रेन वाटर हार्वेस्टिंग, वॉटर रिसाइक्लिंग और ग्राउंड वॉटर रिचार्ज जल संसाधनों के संरक्षण के लिये बहुत ज़रूरी हैं पर इन पर सरकार के काम दिखावटी ज़्यादा और असरकारक कम हैं। क्यों नहीं । गंगा की तरह यमुना और अन्य नदियों को साफ करने की ईमानदार कोशिश होती। यदि यमुना की सफ़ाई की कोई योजना होती तो दिल्ली के लोगों को पानी की इस कदर तकलीफ़ न होती।
जनता भी जवाबदेही से परे रहती है, उसके द्वारा पैदा की गई परेशानियों को भी वह सरकार पर दोष लगाती है। सार्वजनिक जल को व्यर्थ होते देख भी हम क्यों खामोश रहते हैं? क्यों हर शहर के गंदे नाले उस शहर को पानी पिलाने वाली नदी में ही मिलते हैं? क्यों फ़ैक्टरियों के रासायनिक कचरे नदियों जहरीला बना देते हैं। क्यों हर सीवरलाइन का मुंह नदियों की तरफ खुलता है और नदियों को गंदे नालों में बदल देता है? क्यों इस दूषित जल को साफ़ बनाने वाले ट्रीटमेंट प्लांट ज़्यादा समय बंद रहते हैं?
जिस तरह से लगातार आबादी बढ़ती जा रही है, उसके लिए हमें दूरदर्शी पेयजल योजनाओं की पूरे देश में आवश्यकता है। पर जनता अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझ सिर्फ़ सरकार को कोसना जानती है। जनता गाल बजाने वाले नेताओं और सत्ताधीशों, स्थानीय निकायों में घटिया किस्म की राजनीति करने वाले लोगों को मजबूर कर देती ताकि वो पर्याप्त और स्वच्छ जल प्रदाय की कारगर योजनाएं नहीं बनाते? अगर जल संरक्षण के प्रति जनता खुद सजग हो जाए तो न तो शहरों में गरमी के दिनों में टैंकर माफिया जल संकट को मुनाफे के कारोबार में बदल पाऐंगे , न ही पुलिस को पानी की निगरानी करनी होगी । यह समय जल संकट से सामूहिक मुकाबले का है। साथ ही बढ़ती आबादी के परिप्रेक्ष्य में नये सिरे से जल संरक्षण व वितरण की दूरगामी नीति बनाने का है, और हम सबको इसके लिये मिल-जुलकर काम करना होगा।
( राजीव खरे- राष्ट्रीय ब्यूरो)
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